RUINS OF NALANDA UNIVERSITY BIHAR | NALANDA KHANDAR | नालंदा खंडर

Written by Subhash Rajak

Updated on:

नमस्कार दोस्तों आज की इस पोस्ट में हम Ruins of Nalanda University Bihar के बारे में बात करने जा रहे है, जिसे आज हम नालंदा खंडर (Nalanda khandar) कह रहे हैं | दुनिया के सबसे पुराने शिक्षण संस्थानों की बात की जाए तो उसमे से नालंदा विश्वविद्यालय का नाम सबसे ऊपर आता है

बिहार की राजधानी पटना से करीब 120 किलोमीटर दक्षिण-उत्तर में नालंदा जिला में Old nalanda University के अवशेष आज भी देखने को मिलते है इतिहासकारों की मानें तो, यह विश्वविद्यालय भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विश्वविख्यात केंद्र था |

दोस्तों आपको नालंदा यूनिवर्सिटी को जानने से पहले नालंदा को जान लेना चाहिए, आपको बता दें की नालंदा प्राचीन भारत का एक समृद्ध नगर था, जो मगध की राजधानी राजगृह से एक योजन उत्तर-पश्चिम में स्थित था। यह नगर अपनी भव्यता, सांस्कृतिक वैभव और विद्या के केंद्र के रूप में पूरे विश्व में प्रसिद्ध था।

यदि आप पाली ग्रंथों को उठाकर देखें तो आपको पता चलेगा की नालंदा एक बहुजनाकीर्ण नगर था, जहाँ महाधनी सेठ ‘लेप’, जो भगवान बुद्ध के शिष्य थे, यहाँ रहते थे। इसी नगर का एक अन्य व्यापारी ‘उपालि’, जो पहले श्रमण निर्गन्ध नातपुत्र का अनुयायी था, बुद्ध के ज्ञान से प्रभावित होकर उनका शिष्य बन गया।

दोस्तों आपको पता चल गया की इतिहास में नालंदा को ‘समृद्ध-सम्पन्न’ नगर के रूप में जाना गया, जहाँ प्रचुर सामग्रियाँ और संसाधन उपलब्ध थे।

चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में उल्लेख किया है कि

यहाँ के लोग मानते थे कि इस स्थान का नाम ‘नालंदा’ एक तालाब में रहने वाले ‘नालंदा’ नामक नाग के कारण पड़ा।

बुद्ध के समय में यह नगर शिक्षा और संस्कृति का प्रमुख केंद्र था, जिसका प्रमाण उनके कथन में मिलता है – अयं नालंदा इद्ध चेव फीता च बहुजना आकिरणमनुस्सा’।

नालंदा न केवल एक नगर था, बल्कि यह प्राचीन भारत की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक भी था। इसका इतिहास इसकी शिक्षा, कला और धर्म के प्रति प्रतिबद्धता की अद्भुत गाथा सुनाता है।

आज भी नालंदा अपनी गौरवशाली परंपरा और ऐतिहासिक महत्व के कारण विद्वानों और पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। तो दोस्तों ये था नालंदा के बारे में जानकारी अब लेख को आगे बढ़ाते हैं और आपको Old Nalanda University के बारे में बताते हैं |

आज के समय में बहुत से लोग इस विश्वविद्यालय को देखने के लिए जाते है हालांकि अब यह विश्वविद्यालय एक खंडर बन चुका है लेकिन फिर जो लोग इतिहासिक जगहों पर घूमने का शोक रखते है वो इस विश्वविद्यालय में घूमने के लिए आते है तो चलिए

आपको बताते है की Nalanda University Bihar का इतिहास क्या है और नालंदा के खँड़रों में घूमने के लिए आपका कितना खर्चा आ सकता है?

विशेषताजानकारी
स्थानबिहार के नालंदा जिले में, पटना से लगभग 120 किलोमीटर दूर
स्थापनागुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम द्वारा 5वीं शताब्दी में
अंतरराष्ट्रीय ख्याति9वीं से 12वीं शताब्दी तक, कोरिया, जापान, चीन, तिब्बत, इंडोनेशिया, फ्रांस और तुर्की के छात्र यहां पढ़ने आते थे
संरचना300 से अधिक कमरे, सात बड़े कक्ष, और नौ मंजिला एक विशाल पुस्तकालय जिसमें तीन लाख से अधिक किताबें थीं
आक्रमण और विनाशस्कंदगुप्त के समय में मिहिरकुल के तहत हुआ पहला हमला; गौदास द्वारा दूसरा हमला 7वीं शताब्दी में; तुर्क सेनापति इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी द्वारा 1193 में तीसरा और विनाशकारी हमला
खंडरों का टिकट मूल्यभारतीय नागरिकों के लिए ₹40, विदेशी नागरिकों के लिए ₹600; 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के लिए निःशुल्क प्रवेश
खोजनालंदा के पतन के छह शताब्दियों बाद, सर फ्रांसिस बुकानन द्वारा
आग का प्रभावआखिरी आक्रमण के बाद आग तीन महीने तक जलती रही, जिसमें कई धार्मिक ग्रंथ और किताबें नष्ट हो गईं
छात्र और अध्यापक संख्यालगभग 10,000 छात्र और 2,000 से अधिक अध्यापक
नालंदा खंडर विशेषता और जानकारी

सरिपुत्र का जन्म – स्थान | The Birth Place Of Sariputra

Contents

दोस्तों जब भी आप नालंदा खंडर विज़िट करेंगे आपको सारिपुत्र का नाम बार -बार सुनने को मिलेगा | जी हाँ दोस्तों आपको सारिपुत्र और नालंदा की relationship को समझना पड़ेगा | आप सभी को पता है की भगवान बुद्ध का प्रमुख शिष्य उपतिस्स सारिपुत्र था | 

इनका जन्म नालंदा के पास स्थित ‘नालक’ ग्राम में हुआ था। उनके जन्म ने इस स्थान को बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए एक विशेष महत्व प्रदान किया। क्यों बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए एक विशेष महत्व प्रदान किया आइये जानते हैं, जब सारिपुत्र का अंतिम समय निकट आया, तो वे वही नालक ग्राम आए जहां वे जन्मे थे। 

और लौटने के पश्चात वहाँ उन्होंने अपनी माता को धर्म का उपदेश दिया और उसी कक्ष में निर्वाण प्राप्त किया, जहाँ उनका जन्म हुआ था। इस घटना के बाद से नालक ग्राम बौद्ध श्रद्धालुओं, श्रमणों और उपासकों के लिए एक पवित्र तीर्थस्थल बन गया।

दोस्तों बात की जाए सारिपुत्र का व्यक्तित्व की तो आपको बता दें इनका व्यक्तित्व महान और अद्वितीय था। और यह बात हम नहीं भगवान बुद्ध ने स्वयं कहा था, “भिक्षुओ, सभी प्रज्ञावानों में सारिपुत्र सबसे अग्रणी हैं।” इतना ही नहीं, उन्होंने यह भी कहा, “जिस दिशा में सारिपुत्र एक बार जाते हैं, उस दिशा में मेरे जाने की आवश्यकता नहीं रहती।” 

इन शब्दों से सारिपुत्र की प्रज्ञा और बुद्ध के प्रति उनके महत्व को समझा जा सकता है। बौद्ध धर्म में भगवान बुद्ध के बाद यदि किसी की सबसे अधिक पूजा होती है, तो वह सारिपुत्र हैं।

सारिपुत्र के जन्म और निर्वाण के पवित्र स्थान पर उनकी स्मृति में एक भव्य चैत्य का निर्माण किया गया। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने उल्लेख किया है कि मगध के पाँच सौ व्यापारियों ने दस कोटि स्वर्ण मुद्राएँ दान में देकर यहाँ एक विस्तृत भूमि खरीदी थी। 

तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के अनुसार, सम्राट अशोक ने भी इस स्थान पर आकर सारिपुत्र के चैत्य की पूजा की और उनके सम्मान में एक सुंदर मंदिर का निर्माण करवाया।

सारिपुत्र, जिन्हें ‘प्रज्ञा के प्रतीक’ कहा जाता है, के जन्म और निर्वाण से नालंदा की पवित्रता और महत्ता कई गुना बढ़ गई। मगध के सम्राटों और जनता ने इसे श्रद्धा का केंद्र बनाया। यही नालंदा आगे चलकर ज्ञान, धर्म और प्रज्ञा का ऐसा केंद्र बना, जिसने इसे विश्व प्रसिद्धि दिलाई।

नालंदा खंडरों का इतिहास | History Of Nalanda Ruins

Old Nalanda University Bihar के खंडरों (Ruins) में घूमने जाने से पहले हमे इसके इतिहास के बारे में थोड़ी जानकारी होनी चाहिए आपको बता दे की इस विश्वविद्यालय को भारत का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय (India’s biggest university) माना जाता था

भवन-निर्माण और नालंदा का गौरव

नालंदा के सारिपुत्र चैत्य के आसपास बने भिक्षु विहार धीरे-धीरे विद्या के केंद्र बन गए। और यह इतना बड़ा शिक्षा का केंद्र बन गया की देश- विदेश के विभिन्न हिस्सों से विद्यार्थी यहाँ आकर शिक्षा प्राप्त करने लगे।

अब लाजिमी था की विद्यार्थियों की संख्या बढ़ेगी ही अतः विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने के कारण स्थान और व्यवस्था की कमी होने लगी, जिसे समय-समय पर श्रद्धालु राजाओं ने अपने सहयोग से पूरा किया।

प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने नालंदा में भवन-निर्माण का उल्लेख किया है।

उन्होंने शक्रादित्य, बुद्धगुप्त, तथागतगुप्त, बालादित्य, वज्र और ‘मध्यदेशीय’ (संभवत: राजा हर्षवर्धन) जैसे राजाओं द्वारा नालंदा में निर्माण कार्य का विवरण दिया है।

ह्वेनसांग के बाद भारत आए चीनी यात्री इत्सिंग ने भी नालंदा में आठ भव्य विहारों का वर्णन किया, जो राजाओं द्वारा निर्मित थे।

पाल वंशीय राजाओं, जैसे श्री धर्मपाल और श्री देवपाल ने नालंदा के निर्माण में अत्यधिक योगदान दिया।

इन भवनों की सुंदरता और विशालता अद्वितीय थी। ‘यशोवर्मदेव शिलालेख’ के अनुसार, इन विहारों की शिखर श्रेणियाँ मानो अम्बुधरों (बादलों) को छूती थीं।

ये भवन न केवल स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण थे, बल्कि उनकी सजावट भी अनुपम थी। ह्वेनसांग ने लिखा है कि इन गगनचुंबी भवनों पर बैठकर मेघों के बदलते रूपों का आनंद लिया जा सकता था।

नालंदा के भवनों की भव्यता आज भी इसके अवशेषों से समझी जा सकती है। खंडहरों की मोटी दीवारें, जो 6 से 12 फीट तक चौड़ी थीं, इन भवनों की विशालता का प्रमाण देती हैं। पक्की और चौड़ी सीढ़ियों के भग्नावशेष भी इस बात का संकेत देते हैं कि इतनी ऊँचाई तक पहुँचने के लिए इनका निर्माण हुआ था।

इन महाविहारों के पास ही चैत्य और स्तूपों की पंक्तियाँ थीं, जिनका सुंदर वर्णन ह्वेनसांग ने किया है। ब्राह्मण श्रद्धालु श्री सुविष्णु ने हीनयान और महायान के उत्थान के लिए 108 मंदिर बनवाए थे।

इनमें शाक्यसिंह और अन्य देवताओं की प्रतिमाएँ स्थापित की गई थीं। सम्राट अशोक के वंशज पूर्णवर्मा ने 80 फीट ऊँची तांबे की बुद्ध प्रतिमा बनवाई थी, जिसे ह्वेनसांग ने स्वयं देखा था।

भारत के पड़ोसी देशों ने भी नालंदा के निर्माण में सहयोग किया। सुवर्ण द्वीप (सुमात्रा) के राजा बालपुत्र देव ने यहाँ एक महाविहार बनवाया, जिसका उल्लेख देवपाल के ताम्रलेख से मिलता है।

आर्थिक व्यवस्था और पोषण

चूंकि नालंदा यूनिवर्सिटी एक बहुत बड़ा शिक्षा का केंद्र बन चुका था तो महाविहारों के अनुरूप उनकी आर्थिक व्यवस्था भी भव्य थी। ह्वेनसांग के अनुसार, राज्य ने नालंदा विश्वविद्यालय को 100 गाँवों की आय समर्पित की थी।

इन गाँवों से चावल, मक्खन, दूध आदि आवश्यक खाद्य पदार्थ मिलते थे। इत्सिंग ने भी लिखा है कि उनके समय में विश्वविद्यालय को 200 गाँवों की आय प्राप्त होती थी।

पाल वंशीय राजा देवपाल ने सुमात्रा के राजा बालपुत्र देव के अनुरोध पर राजगृह के पास पाँच गाँव दान में दिए थे, ताकि उनके बनवाए महाविहार का संचालन हो सके।

इतना ही नहीं, कन्नौज के राजा यशोवर्म के मंत्री मालाद ने भी नालंदा के भिक्षुओं के भोजन और अन्य आवश्यकताओं के लिए इतना धन दान दिया था, जिससे पूरा संघाराम खरीदा जा सकता था।

इस समृद्ध आर्थिक व्यवस्था के कारण नालंदा के आचार्य और विद्यार्थी बिना किसी चिंता के विद्याभ्यास में संलग्न रहते थे। इन भवनों और व्यवस्थाओं ने नालंदा को शिक्षा और ज्ञान का ऐसा केंद्र बनाया, जिसने इसे पूरे विश्व में ख्याति दिलाई।

नालंदा विश्वविद्यालय की शिक्षा नीति | Education Policy of Nalanda University

नालंदा विश्वविद्यालय का शिक्षा जगत में एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। यह बौद्ध धर्म, दर्शन, कला, इतिहास, और निरुक्ति जैसे विषयों का प्रमुख केंद्र था।

इसके साथ ही ब्राह्मण और अन्य धर्म-दर्शन की भी गहन पढ़ाई होती थी। आयुर्वेद, विज्ञान और कला जैसे आधुनिक विषयों की शिक्षा का भी विशेष प्रबंध था।

चीन से आए महान छात्र ह्वेनसांग ने यहां वेद, हेतुविद्या (तर्कशास्त्र), शब्दविद्या (भाषाविज्ञान), चिकित्सा शास्त्र, ज्योतिष, और सांख्य जैसे विषयों का अध्ययन किया।

योगशास्त्र में निपुण आचार्य शीलभद्र ने यहां के कुलपति के रूप में प्रसिद्धि पाई। ह्वेनसांग ने दंडनीति (कानून) और पाणिनीय संस्कृत व्याकरण का भी अध्ययन किया।

महायान और हीनयान का अध्ययन

यद्यपि नालंदा मुख्यतः महायान बौद्ध धर्म का केंद्र था, लेकिन यहां हीनयान के ग्रंथों की भी गहन पढ़ाई होती थी। चीनी विद्वान इत्सिंग ने यहां 10 वर्षों तक हीनयान का अध्ययन किया।

भारतीय न्यायशास्त्र में योगदान

नालंदा ने भारतीय न्यायशास्त्र और प्रमाण शास्त्र के विकास में अतुलनीय योगदान दिया। नालंदा और मिथिला के विद्वानों के बीच सात शताब्दियों तक बौद्धिक विमर्श चलता रहा।

मिथिला के न्याय सूत्रकार गौतम ने बौद्ध सिद्धांतों का खंडन किया, तो नालंदा के आचार्य नागार्जुन ने अपने ग्रंथों के माध्यम से इसका प्रतिवाद किया। इस बौद्धिक संघर्ष से भारतीय तर्कशास्त्र (Logic) और प्रमाणविद्या (Epistemology) का जो विकास हुआ, उसकी गहराई आज भी दुनिया के अन्य विश्वविद्यालयों में दुर्लभ है।

मूर्ति निर्माण और कला केंद्र

नालंदा कला और मूर्ति निर्माण का भी प्रमुख केंद्र था। यहां पक्की ईंट की भट्टियों और धातु की मूर्तियों के अवशेष मिले हैं। तिब्बती इतिहासकार तारानाथ के अनुसार, राजा धर्मपाल के काल में यहां धीमान और उनके पुत्र वितपाल जैसे निपुण कलाकार थे, जिन्होंने उत्कृष्ट मूर्तियों की परंपरा स्थापित की।


आचार्य और उनकी विद्वता

नालंदा विश्वविद्यालय में 10,000 विद्यार्थी और 1,500 आचार्य हुआ करते थे। ह्वेनसांग के समय में यहां 1,510 आचार्य थे, जिनमें प्रमुख कुलपति शीलभद्र थे। आचार्य धर्मपाल, चंद्रपाल, गुणमति, स्थिरमति, और धर्मकीर्ति जैसे महान विद्वानों ने नालंदा की प्रतिष्ठा को नई ऊंचाई दी।

चीनी यात्री इत्सिंग ने यहां की मैत्रीपूर्ण शिक्षा व्यवस्था का उल्लेख करते हुए लिखा कि छात्रों और शिक्षकों के बीच अद्भुत सामंजस्य था। सात शताब्दियों के इतिहास में यहां कभी भी व्यापक भेदभाव या नियमों के उल्लंघन की घटना नहीं हुई।

विद्यार्थियों की प्रवेश प्रक्रिया | selection Process

नालंदा में प्रवेश पाना बेहद कठिन था। प्रवेश द्वार पर ‘द्वारपंडित’ द्वारा कठिन परीक्षा ली जाती थी। ह्वेनसांग के अनुसार, 15 में से केवल 3 विद्यार्थी ही प्रवेश परीक्षा पास कर पाते थे। यहां का स्नातक बन जाना समाज में उच्च योग्यता का प्रतीक माना जाता था।

विद्यार्थियों की सुविधा

विश्वविद्यालय में छात्रों से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जाता था। भोजन, वस्त्र, और पुस्तकें विश्वविद्यालय द्वारा मुफ्त में प्रदान की जाती थीं। ह्वेनसांग ने लिखा, “यहां छात्रों को वही सुविधाएं मिलती थीं जो किसी राजा को प्राप्त होती हैं।”


अंतर्राष्ट्रीय केंद्र के रूप में नालंदा

नालंदा न केवल उच्च शिक्षा का केंद्र था, बल्कि यह धर्म और संस्कृति के प्रचार का भी गढ़ था। यहां से विद्वान तिब्बत, चीन, और लंका जैसे देशों में जाकर भारतीय संस्कृति का प्रचार करते थे।

तिब्बती राजा स्त्रांग-त्संग-गम्पो ने अपने मंत्री को नालंदा में अध्ययन के लिए भेजा। यहां के आचार्य पद्मसंभव और शांत रक्षित ने तिब्बत में धर्म और तंत्र विद्या का प्रचार किया।

नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय और अनुशासन

पुस्तकालय का गौरव

नालंदा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय प्राचीन भारत का सबसे समृद्ध और भव्य पुस्तकालय था। यह केवल पुस्तकों का संग्रहालय नहीं, बल्कि ज्ञान का भंडार था, जहाँ से दुनिया भर के विद्वान प्रेरणा और मार्गदर्शन पाते थे।

इस पुस्तकालय को ‘धर्मगंज’ के नाम से जाना जाता था, जिसमें ‘रत्नसागर’, ‘रत्नोदधि’ और ‘रत्नरंजक’ नाम के तीन प्रमुख पुस्तकालय शामिल थे। ‘रत्नसागर’ का भवन नौ मंज़िला था, जिसमें दुर्लभ और अनमोल ग्रंथों का संग्रह था।

यहाँ बैठकर चीनी विद्वान ह्वेनसांग ने संस्कृत ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद किया। इसी पुस्तकालय में विद्वान इत्सिंग ने दस वर्षों की कठोर तपस्या के बाद पाँच लाख श्लोकों के बराबर चार सौ संस्कृत ग्रंथों का संग्रह किया। यह पुस्तकालय उस समय के सभी प्रमुख विषयों जैसे धर्म, दर्शन, विज्ञान और कला में समृद्ध था।

आक्रमण और विनाश

तुर्कों के आक्रमण के दौरान नालंदा के इन पुस्तकालयों को बहुत बड़ी क्षति पहुँची। अग्निकांड में हजारों दुर्लभ ग्रंथ जलकर राख हो गए। बाद में मगधराज के मंत्री कुकुट सिद्ध ने इसे पुनर्जीवित करने का प्रयास किया और एक मंदिर का निर्माण करवाया।

लेकिन असंतुष्ट तैर्थिकों (अन्य धर्मावलंबियों) ने फिर से पुस्तकालय को आग के हवाले कर दिया। इस बार ‘रत्नोदधि’ पूरी तरह नष्ट हो गया।

आज यह कहना कठिन है कि इन पुस्तकालयों में कितने और किस प्रकार के ग्रंथ थे। लेकिन यह तय है कि यहाँ उस समय के सभी प्रमुख ज्ञान-विज्ञान से जुड़े ग्रंथ संग्रहीत थे।

अनुशासन और दिनचर्या

नालंदा विश्वविद्यालय का अनुशासन बेहद सख्त और व्यवस्थित था। यहाँ के प्रधान को ‘कुलपति’ कहा जाता था, जिन्हें ‘विद्या-भूषण’ की उपाधि दी जाती थी। कुलपति के सहायक अधिकारी ‘पंडित’ कहलाते थे। इसके अलावा ‘महास्थविर’ और ‘स्थविर‘ जैसे पद भी मौजूद थे।

यहाँ का दैनिक कार्यक्रम आठ भागों में विभाजित था। सुबह दो घंटे पढ़ाई के लिए निर्धारित थे। बारह बजे के बाद सभी छात्र और आचार्य भोजन करते थे। भोजन के बाद थोड़े विश्राम के बाद फिर से पढ़ाई शुरू होती थी। शाम को विश्राम और स्वाध्याय के लिए समय दिया जाता था।

स्वच्छता और विनय

विश्वविद्यालय के आसपास दस बड़ी पुष्करणियाँ (तालाब) थीं, जहाँ विद्यार्थी और आचार्य स्नान करने जाते थे। स्नान के समय की सूचना घंटी बजाकर दी जाती थी।

यहाँ के सभी विद्यार्थी और शिक्षक बौद्ध भिक्षु थे, इसलिए वे ‘विनय पिटक’ में वर्णित अनुशासन का पूरी तरह पालन करते थे। सुबह उठते ही सभी मिलकर विहार की सफाई करते और फिर बुद्ध वंदना के लिए मंदिर में एकत्र होते थे।

नालंदा की महान विरासत

नालंदा विश्वविद्यालय ने नागार्जुन, दिङ्नाग और धर्मकीर्ति जैसे महान विद्वानों को जन्म दिया। यहाँ के तंत्र, योग और अन्य शास्त्रों पर आधारित सैकड़ों ग्रंथ तिब्बती और चीनी अनुवादों में आज भी उपलब्ध हैं।

यह विश्वविद्यालय केवल शिक्षा का केंद्र नहीं था, बल्कि एक ऐसी सभ्यता का प्रतीक था, जिसने ज्ञान की रोशनी पूरे विश्व में फैलाई। नालंदा का यह गौरव आज भी भारतीय इतिहास का एक सुनहरा अध्याय है, जो यह सिखाता है कि ज्ञान, अनुशासन और समर्पण से कैसे दुनिया को बदला जा सकता है।

नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना कब और किसने की ? When and Who established Nalanda university Bihar?

नालंदा विश्वविद्यालय बिहार (Nalanda University Bihar) की स्थापना गुप्त शासक कुमारगुप्त प्रथम (450-470) ने की थी माना जाता है की नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक इस नालंदा विश्वविद्यालय को अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त थी ऐसा भी माना जाता है की

इस विश्वविद्यालय में इतनी किताबे रखी हुई थी जिन्हे पढ़ना आसान नहीं था इस विश्वविद्यालय में लगभग 300 से ज्यादा कमरे तथा सात बड़े बड़े कक्ष थे |

इसके अलावा अध्ययन के लिए नो मंजिला एक विशाल पुस्तकालय भी मौजूद था जिसमे तीन लाख से भी ज्यादा किताबे रखी गई थी

नालंदा विश्वविद्यालय पर किसने नष्ट किया था? | Who Destroyed Nalanda University Bihar

इतिहासकारों के अनुसार नालंदा विश्वविद्यालय (Nalanda University) पर आक्रमणकारियों ने तीन बार हमला किया था और इसे नष्ट कर दिया था सबसे पहले इस पर आक्रमण स्कंदगुप्त (455-467 ईस्वी) के शासनकाल के समय मिहिरकुल के तहत ह्यून ने कुय था

लेकिन बाद में स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारीयों ने पुस्तकालय की मरम्मत करवाई और एक बड़ी इमारत के साथ इसमे कई सुधार किए

दूसरी बार इस पर गौदास ने 7 वीं शताब्दी की शूरवात में इस पर हमला किया था जिसके बाद बौद्ध राजा हर्षवर्धन (606-648 ईस्वी) ने विश्वविद्यालय की मरम्मत करवाई थी.

तीसरी बार इसपर सबसे ज्यादा विनाशकारी हमला हुआ जो की तुर्क सेनापति इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी और उसकी सेना ने 1193 में किया था

जिसके बाद उन्होंने इस विश्वविद्यालय को पूरी तरह से नष्ट कर दिया जिसमे कई धार्मिक ग्रंथ भी जल गए थे इस आक्रमण के बाद इसका पूर्ण निर्माण किसे ने भी नहीं करवाया

Nalanda Khandar Ticket Price | Full Detail

तो दोस्तों आप ने ऊपर पढ़ ही लिया होगा की नालंदा विश्वविद्यालय हमारे देश के लिए कितना महत्वपूर्ण था यदि आज ये विश्वविद्यालय खंडर न बन गया होता है तो भारत का सबसे बड़ा विश्वविद्यालय होता है

लेकिन अब यह पूरी तरह से खंडर में तब्दील हो चुका है बहुत से लोग इतिहास के बारे में जानने के लिए इस खंडर को देखने आते है यदि आप भी Nalanda Khandar को देखना चाहते है?

तो आपको बता दे की यहाँ विज़िट करने के लिए आपको एक टिकट खरीदनी पड़ती है जिसकी कीमत भारतीय नागरिक के लिए 40 रुपए है वही किसी विदेशी के लिए 600 रुपए है यदि आप अपने बच्चों को अभी साथ लेकर जाना चाहते है तो बता दे की 15 साल से नीचे के बच्चों के लिए एंट्री फ्री है |

और आपको बता दें की यदि आप फोटोग्राफी या videography का शोक रखते हैं तो आप अपना कैमरा ले जा सकते हैं और उसके लिए भी आपको एक्स्ट्रा पेमेंट करना पड़ता है- कैमरा चार्ज – 25 रुपए |

Nalanda khandar ticket price chart-

CategoryTicket Price (₹)
भारतीय (Indian Citizens)₹40.00 per person
सार्क एवं बिम्सटेक देश (SAARC & BIMSTEC Countries)₹40.00 per person
विदेशी (Foreign Citizens)₹600.00 per person
15 वर्ष से कम आयु वर्ग (Children under 15 years)Free
वीडियो कैमरा शुल्क (Video Camera Fee)₹25.00 only

Conclusion –

आशा करते है की आप सभी लोगों को हमारा ये आर्टिकल और इसमे दी गई Ruins Of Nalanda University Bihar or Nalanda khandar के बारे में सारी जानकारी पसंद आई होगी यदि आप इसके बारे में हमसे कुछ पूछना चाहते है तो नीचे दिए गए कमेन्ट बॉक्स में पूछ सकते है

इसके अलावा ऐसे ही आर्टिकल पढ़ने के लिए और इतिहास के बारे में जानने के लिए हमे सोशल मीडिया पर जरूर फॉलो करें क्योंकि हम वहाँ ऐसे आर्टिकल रोजाना पोस्ट करते रहते है |


FAQ

Nalanda University कितना पुराना है?

इतिहासकारों की माने तो नालंदा खंडर लगभग 5 वी शताब्दी का है

नालंदा यूनिवर्सिटी की स्थापना किसने की थी?

नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना 5 वी शताब्दी में गुप्त वंश के शासक सम्राट कुमारगुप्त ने की थी |

नालंदा खंडरों की खोज किसने की थी?

नालंदा खंडरों की खोज नालंदा के पतन के छह शताब्दी के बाद सबसे पहले सर फ्रांसिस बुकानन की थी

Nalanda University Bihar में लगाई आग कब तक जलती रही थी?

इतिहासकारों का मानना है की जब आखिरी बार नालंदा पर हमला हुआ और इसे नष्ट करके यहाँ आग लगाई गई तो वो आग लगातार तीन महीनों तक जलती रही जिसमे कई सारी किताबे और धार्मिक ग्रंथ जलकर नष्ट हो गए

How many students and teachers are there in Old Nalanda University?

इसमे लगभग 10 हजार छात्र और लगभग 2 हजार से भी ज्यादा अधियापक हुआ करते थे

Leave a Comment