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संजय कुमार
बिहार विधानसभा चुनाव 2025 कई मायनों में पिछले चुनाव से बिल्कुल अलग दिखाई दिया। आमतौर पर विभिन्न राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता वर्षभर पार्टी की नीतियों को जनता तक पहुँचाने, संगठन को मजबूत करने और नेतृत्व का विश्वास जीतने में जुटे रहते हैं ताकि भविष्य में उन्हें टिकट मिले और विधायिका या संसदीय राजनीति में प्रवेश का अवसर प्राप्त हो सके। पर इस बार का चुनाव कार्यकर्ताओं के लिए बेहद निराशाजनक रहा। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष—लगभग सभी दलों पर कार्यकर्ताओं की उपेक्षा और धनबल को प्राथमिकता देने के आरोप सबसे अधिक उभरे।

चुनाव से पूर्व राजनीतिक दलों की सक्रियता से यह आभास हो रहा था कि जनता परिवर्तन के मूड में है। विपक्ष की गतिविधियाँ भी मजबूत दिखाई दे रही थीं। लेकिन जैसे ही टिकट वितरण की बारी आई, सभी दलों में अंदरखाने सौदेबाजी और पैसों का प्रभाव हावी होता दिखा। कई कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि वर्षों से पार्टी का झंडा उठाने वालों को टिकट नहीं दिया गया और टिकट उन लोगों को मिल गए जिनका संगठन से कोई गहरा जुड़ाव नहीं था। यहाँ तक कि टिकट “लाखों नहीं, करोड़ों रुपये” में बिकने के आरोप भी खुलकर सामने आए।
नालंदा जिले में कांग्रेस परिस्थिति इसका स्पष्ट उदाहरण रही। जिले के सात विधानसभा क्षेत्रों में लगभग 70 दावेदारों ने टिकट की उम्मीद में विभिन्न कार्यक्रमों में भारी खर्च किया। दावेदारों का आरोप है कि उन्हें टिकट दिलाने के नाम पर आर्थिक रूप से इतना अधिक नुकसान पहुँचाया गया कि कई लोग चुनाव लड़ने की स्थिति में ही नहीं बचे। अंततः कांग्रेस ने सिर्फ तीन सीटों—हरनौत से अरुण बिंद, नालंदा से कौशलेंद्र कुमार उर्फ छोटे मुखिया और बिहारशरीफ से गया निवासी उमैर खान—को उम्मीदवार बनाया। इस निर्णय से स्थानीय कार्यकर्ताओं में असंतोष पैदा हुआ क्योंकि बिहारशरीफ में जिस प्रत्याशी को लाया गया, उसका स्थानीय जनाधार नगण्य था। वहीं नालंदा सीट पर जिस उम्मीदवार को टिकट मिला, वे टिकट मिलने से ठीक पहले तक भाजपा से जुड़े हुए थे।
बदलाव की राजनीति का दावा करने वाले प्रशांत किशोर और उनकी जन सुराज पार्टी भी इस आलोचना से अछूते नहीं रहे। कार्यकर्ताओं से कहा गया कि जिस उम्मीदवार के नाम पर सबसे अधिक सदस्यता कार्ड बनेंगे, टिकट उसी को मिलेगा। लेकिन टिकट उन लोगों को मिला जो कुछ ही समय पहले पार्टी में आए थे। इससे पुराने कार्यकर्ताओं में यह सवाल उठने लगा कि यदि संघर्ष और जनाधार का मूल्यांकन ही नहीं होना है तो फिर लंबे समय तक संगठन से जुड़े रहने का क्या लाभ?
इन घटनाओं से चिंता का विषय यह उभरता है कि जब राजनीतिक दल अपने ही समर्पित कार्यकर्ताओं को महत्व नहीं देंगे, तो भविष्य में इन्हें समर्पित कार्यकर्ता कहाँ से मिलेंगे? लोकतांत्रिक राजनीति की रीढ़ कार्यकर्ता ही होते हैं। यदि उन्हें बार-बार उपेक्षा, सौदेबाजी और धनबल का सामना करना पड़ेगा, तो स्वाभाविक है कि वे दल और राजनीति दोनों से दूरी बनाने लगेंगे।
बिहार चुनाव 2025 ने यह स्पष्ट कर दिया है कि राजनीति में सिद्धांत, समर्पण और सामाजिक संवाद की जगह धीरे-धीरे धनबल और प्रभावशाली नेटवर्क ले रहे हैं। यदि राजनीतिक दल इस प्रवृत्ति पर समय रहते विचार नहीं करेंगे, तो आने वाले वर्षों में इन्हें संगठनात्मक कमजोरी और जनाधार के क्षरण का सामना करना पड़ेगा।






